सुरेश सिंह बैस शाश्वत/गणेश उत्सव भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और धार्मिक पर्व है, जिसकी जड़ें संत लोकमान्य तिलक द्वारा किए गए जनजागरण आंदोलन से जुड़ी हैं। यह पर्व केवल आस्था का प्रतीक ही नहीं, बल्कि भारतीय एकता, परंपरा और सांस्कृतिक अस्मिता का जीवंत उदाहरण भी रहा है। किंतु वर्तमान समय में जिस प्रकार से गणेश मूर्तियों के स्वरूप में पारंपरिक शिल्प,आस्था और भारतीय सौंदर्यबोध की उपेक्षा कर विदेशी, विशेषकर चीनी डिज़ाइनों व आकृतियों को शामिल किया जा रहा है, वह चिंताजनक है।
पारंपरिक मूर्तिकला की अनदेखी प्राचीन काल से गणेश जी की मूर्तियाँ शास्त्रीय विधान, आकार-विन्यास और धार्मिक शुद्धता के अनुसार बनाई जाती रही हैं। उनका वाहन मूषक, चार भुजाएँ, हाथों में परशु, अंकुश, मोदक और वरमुद्रा – यह सब भारतीय परंपरा और पुराणों पर आधारित है। परंतु अब कई स्थानों पर गणेश जी को सुपरहीरो के रूप में, कार्टून पात्रों जैसे दिखाना, या उन्हें चीनी खिलौनों जैसी रंग-बिरंगी भंगिमा में प्रस्तुत करना एक प्रकार से उनकी महत्ता और गरिमा का अवमूल्यन है।
यह एक विचारणीय प्रश्न है कि क्या यह परिवर्तन केवल बाज़ारवाद का परिणाम है, या इसके पीछे सांस्कृतिक षड्यंत्र छिपा हुआ है। चीन जैसे देशों से आयातित सजावटी सामान, प्लास्टिक की मूर्तियाँ और कृत्रिम सजावट न केवल स्थानीय कारीगरों के रोजगार पर असर डाल रही हैं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक पहचान को भी क्षीण कर रही हैं। विदेशी शैली की मूर्तियाँ कहीं-न-कहीं आस्था को व्यावसायिकता में परिवर्तित कर रही हैं, और यही हमारे समाज में मानसिक व आध्यात्मिक दूरी का कारण बन सकता है।
गणेश जी केवल एक देवता नहीं, बल्कि ‘विघ्नहर्ता’, ‘बुद्धि के दाता’ और ‘लोकप्रिय देव’ हैं। उनकी मूर्ति का प्रत्येक भाग प्रतीकात्मक है, जिसे समझने और सम्मान देने की आवश्यकता है। जब उनके स्वरूप के साथ खिलवाड़ होता है, तो यह केवल मूर्ति का रूपांतरण नहीं, बल्कि जनमानस की आस्था और परंपरा पर आघात होता है। यह लोगों के बीच असंतोष, निंदा और विरोध का विषय बन चुका है, जो उचित ही है।
स्थानीय कारीगरों और पारंपरिक शिल्पियों को प्रोत्साहन देकर प्राचीन शैली की मूर्तियाँ बनवानी चाहिए।गणेश उत्सव में स्वदेशी सामग्री व सजावट को अपनाना चाहिए ताकि हमारी संस्कृति सुरक्षित रह सके। समाज को यह समझाना जरूरी है कि मूर्तियों का पारंपरिक स्वरूप ही उनकी धार्मिकता को सार्थक बनाता है। ऐसी मूर्तियों के निर्माण और बिक्री पर निगरानी रखने की आवश्यकता है जो हमारी संस्कृति को दूषित करती हों।
गणेश उत्सव केवल एक पर्व नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, परंपरा और धार्मिक आस्था की अभिव्यक्ति है। आधुनिकता के नाम पर यदि हम अपने मूल स्वरूप से विचलित हो जाते हैं, तो यह केवल एक धार्मिक हानि नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पराजय भी होगी। अब समय आ गया है कि हम सजग हों, अपने त्योहारों की आत्मा को पहचानें और अपने बच्चों को भी पारंपरिक मूल्यों के साथ जोड़ें। विदेशी प्रतिरूपों की नकल करना आधुनिकता नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पराधीनता है। इस गणेश चतुर्थी पर आइए संकल्प लें “पारंपरिक गणेश, स्वदेशी गणेश।”गणेश उत्सव भारतीय संस्कृति का एक गौरवशाली पर्व है, जो न केवल धार्मिक श्रद्धा से जुड़ा है, बल्कि सांस्कृतिक एकता, कारीगरी की परंपरा और सामाजिक सौहार्द का प्रतीक भी है। परंतु हाल के वर्षों में यह देखा गया है कि गणेश जी की मूर्तियाँ पारंपरिक स्वरूप से हटकर बनाए जाने लगी हैं- कभी सुपरहीरो के रूप में, कभी कार्टून कैरेक्टर जैसे, तो कभी किसी विदेशी प्रेरणा से प्रभावित स्वरूप में। यह परिवर्तन न केवल धार्मिक रूप से आपत्तिजनक है, बल्कि एक व्यापक सांस्कृतिक विमर्श और विवाद का कारण भी बन गया है।
गणेश जी की पारंपरिक मूर्तियों में विशिष्ट धार्मिक व शास्त्रीय प्रतीक होते हैं। चार भुजाएँ – जिनमें से प्रत्येक में पाश, अंकुश, मोदक व वरमुद्रा होती है।सिर पर मुकुट और मस्तक पर त्रिनेत्र एवं गजमुख (हाथी का मुख) जो विवेक और बल का प्रतीक है।मूषक वाहन – विनम्रता और नियंत्रण का प्रतीक।त्रिपुंड और तिलक, साथ ही शांत और तेजस्वी मुद्रा।यह स्वरूप पुराणों, तांत्रिक शास्त्र। और शिल्प शास्त्रों में निर्धारितहै, और सदियों से मूर्तिकार इसी रूप में गणेश जी की प्रतिमा गढ़ते आए हैं। गणेश जी का स्वरूप मात्र एक कला नहीं, बल्कि भारतीय जीवनदर्शन, प्रतीकवाद और आध्यात्मिकता का मूर्त रूप है। यदि इस स्वरूप के साथ अनावश्यक प्रयोग और बाज़ारीकरण होता है, तो वह हमारी संस्कृति को खोखला कर देगा। हमें तय करना है हम अपने बच्चों को ‘कॉमिक गणेश’ देंगे या ‘संस्कारिक गणेश’?गणेश उत्सव के बहाने हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहिए जहाँ मिट्टी से बनी मूर्ति में भी भगवान की आत्मा बसती थी, न कि चमकदार रंगों और विदेशी डिज़ाइनों में।
अब बाजार में मिलने वाली कई गणेश मूर्तियाँ इन पारंपरिक विशेषताओं को दरकिनार कर रही हैं।सुपरहीरो गणेश – जैसे स्पाइडरमैन, बैटमैन, या हल्क के रूप में गणेश जी का रूप देना।कार्टून/एनीमे शैली बच्चों को आकर्षित करने के नाम पर डोरेमॉन, मिक्की माउस या पिकाचू जैसे रंग-बिरंगे, गैर-पारंपरिक स्वरूप। चाइनीज़ या वेस्टर्न प्रभाव चीनी खिलौनों की तरह,प्लास्टिक या रेज़िन से बनी चमकीली, आंखों में एलईडी लाइट वाली प्रतिमाएँ।सेलिब्रिटी रूप कई बार फिल्मों या क्रिकेटरों की नकल करते हुए मूर्तियाँ बनाई जाती हैं।
जब किसी देवी-देवता के रूप के साथ छेड़छाड़ होती है, तो वह केवल कलात्मक स्वतंत्रता नहीं, बल्कि श्रद्धालुओं की भावनाओं का अनादर होता है। हिंदू धर्म में देवताओं का रूप सिर्फ सौंदर्य का विषय नहीं, वह आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रतीक होता है। सांस्कृतिक अपमान और विकृति पारंपरिक स्वरूपों से हटकर बनाए गए ये प्रतिरूप एक प्रकार की सांस्कृतिक विकृति हैं, जिससे पीढ़ियों को वास्तविक इतिहास और मान्यताओं की समझ से दूर किया जा रहा है।
विदेशी बाजारवाद और मानसिक उपनिवेश यह धारणा भी प्रबल हो रही है कि पश्चिमी और चीनी प्रभावों से प्रेरित ये मूर्तियाँ भारतीय समाज के सांस्कृतिक उपनिवेशीकरण का संकेत हैं, जहाँ अपने मूल से कटकर हम विदेशी दिखावे को स्वीकार करते जा रहे हैं।जब चीनी या फैक्ट्री-निर्मित सस्ती मूर्तियाँ बाजार में आती हैं, तो इससे पारंपरिक मिट्टी के मूर्तिकारों की आजीविका पर भी चोट पड़ती है।
कई हिंदू संगठनों और पुजारियों ने इन मूर्तियों के बहिष्कार का आह्वान किया है।”पारंपरिक गणेश, स्वदेशी गणेश” जैसे हैशटैग ट्रेंड कर चुके हैं।लोक कलाकारों का कहना है कि इस बदलाव से कला की शुद्धता और पीढ़ियों की परंपरा पर संकट आ गया है। ऐसे विकृतियों पर नियंत्रण के लिए मूर्ति निर्माण के दिशा-निर्देश बनाए जाएं एवं धार्मिक मूर्तियों के निर्माण के लिए न्यूनतम शास्त्रीय मानकों की आवश्यकता है।लोगों को शिक्षित करना ज़रूरी है कि धार्मिक मूर्तियाँ सजावट की वस्तु नहीं, बल्कि श्रद्धा और साधना के प्रतीक हैं।मिट्टी, गोबर और प्राकृतिक रंगों से बनी मूर्तियों को प्राथमिकता दी जाए। नकली/चीनी मूर्तियों पर प्रतिबंधविशेष रूप से त्योहारों के दौरान चीनी/प्लास्टिक की मूर्तियों पर सख्त नियंत्रण होना चाहिए।
देव नक्काशी में झलके संस्कृति की शान,
मिट्टी से गढ़े, पावन रूप महान।
हर अंग में बसे वेदों का संदेश, पारंपरिक गणेश, स्वदेशी गणेश।
पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने इस प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए कहा कि “चीनी-निर्मित गणेश मूर्तियों की आंखें दिन-ब-दिन संकरी होती जा रही हैं”- यह सांस्कृतिक रूपांतरण की दिशा में एक मज़बूत चेतावनी थी।वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी इस पर सवाल उठाया कि अगर ऐसे धार्मिक प्रतीक वस्तुएँ स्थानीय रूप से उपलब्ध हैं, तो उन्हें क्यों आयात किया जा रहा है?जब प्रधानमंत्री मोदी जी ने “छोटी आँखों वाले गणेश” जैसे वाक्य का प्रयोग किया, तो उनका मुख्य अभिप्राय यही था कि हमारे पर्व-त्योहार केवल दिखावे के लिए नहीं, बल्कि परंपरा, श्रद्धा और सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक हैं। ऐसे अवसरों पर विदेशी, विशेषकर चीनी उत्पादों का उपयोग न कर, स्वदेशी और पारंपरिक विकल्पों को प्राथमिकता देनी चाहिए।
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने वक्तव्य में यदा कदा छोटी आंख वाले गणेश जी की मूर्ति पर कटाक्ष करते हुए कहा है कि”छोटी आंखों वाला गणेश” एक प्रतीक था उन वस्तुओं का जो दिखने में आकर्षक हो सकती हैं, पर भावनात्मक, सांस्कृतिक और आध्याति दृष्टि से खोखली हैं। मिट्टी, गोबर, शास्त्रसम्मत आकार और रंगों से बनी मूर्तियाँ केवल मूर्ति नहीं होतीं, वे हमारी परंपरा की आत्मा होती हैं।जब हम गणेशोत्सव जैसे त्योहारों में स्वदेशी मूर्तियाँ और सजावट अपनाते हैं, तो हम स्थानीय कारीगरों, ग्रामीण शिल्प और आत्मनिर्भर भारत के सपने को साकार करते हैं।उनकी यह टिप्पणी केवल आलोचना नहीं, बल्कि एक चेतावनी और आग्रह था कि हम अपने त्योहारों की मूल भावना को न खोएँ।प्रधानमंत्री मोदी जी ने इस व्यंग्यात्मक टिप्पणी से यही संदेश दिया “आस्था को बाज़ार का हिस्सा न बनाएं, त्योहारों को परंपरा से जोड़ें,और देश को आत्मनिर्भरता की ओर मोड़ें।”गणेश जी की प्रतिमा हो या दीपावली का दीया – जब हम अपनी संस्कृति से जुड़ी वस्तुओं को अपनाते हैं, तभी पर्वों की आत्मा जीवित रहती है।”