12 मई सूरदास जयंती के अवसर पर विशेष-
सूरदास ऐसे भक्त कवि जिन्होंने विशिष्ट परंपरा की नींव रखी
सुरेश सिंह बैस शाश्वत/सूरदास एक ऐसी हस्ती का नाम है जो जिस ओर भी गये उस दिशा में अपनी प्रखर विभूति का परिचय कराया चाहे वह कविता साहित्य का क्षेत्र हो या भक्ति का अथवा ऐय्याशी का वेश्यागमन का क्षेत्र हो, उन्होंने हर क्षेत्र में सामान्य से कही ज्यादा जिसे हम दूसरे शब्दों में अति कह सकते हैं, ऐसे सर्वोच्च स्थान को स्पर्श किया जो और कोई दूसरा नहीं कर सकता था। सूरदास जब वेश्यागामी और ऐयाश ये तब भी उन्होंने अति कर डाली थी। उनके अति की क्या सीमा कही जा सकती है…?जब वे अपनी पत्नी के कंधों पर बैठकर वहां गये जहां उनके पिता का श्राद्ध हो रहा था और वहां भी नहीं रुककर सीधे वेश्यालय चले गये।
पर जब यही सूरदास भक्ति और सदाचार की ओर मुड़ा तब भी उसने अपनी भक्ति और सदाचारिता में अति कर दिखाई। उसने अपनी आंखे ही गरम शुल्क सलाखों से फोड़ डाली। वासना, लोभ से भरे मन को विकृत करने वाली आंखे ही नहीं रहेगी तो मन की चंचलता पर काबू पाया जा सकेगा। क्या कोई और ऐसा काम कर सकता है? और इसके बाद उन्होंने भगवान के प्रति ऐसी भक्ति की मिसाल प्रस्तुत की कि भगवान को ही स्वयं आना पड़ा और आंखों के अंधे सूरदास की लाठी पकड़कर उन्हें टट्टी पेशाब कराने के लिये, स्नान कराने के लिए स्वयं प्रस्तुत हुए।
प्रायः अन्य विभूतियों के पृष्ठभूमि में झांके तो सूरदास जी की ही मिलती जुलती पृष्ठभूमि दिखाई देती है। उदाहरणार्थ तुलसीदासजी की भी कुछ ऐसी ही मिलती पृष्ठभूमि हमें दिखाई देगी। तुलसीदास की पृष्ठभूमि तो सभी को ज्ञात है। राजर्षि विश्वामित्र, महर्षि वाल्मीकिं, जैसी महान् हस्तियों की भी कुछ ऐसी ही पृष्ठभूमि रही है। अंगुलिमाल भी पहले एक नंबर का डाकू हत्यारा था। वह लोगों की हत्याकर उनकी ऊंगलियों की माला बनाता और लोगों को लूटकर उंगलियां काट काट कर गले मे पहना करता था। सम्राट अशोक जो क्रूर शासक था,इसने लाखो हत्यायें की। हमारे इतिहास में विख्यात वेश्या रही है आम्रपाली। जब वह वेश्या थी उसके इशारों पर राजे महाराजे, सेठ साहूकार सभी धन का अंबार लगा देते। उसके एक इशारे पर गुलाम बन जाया करते थे। लेकिन यह सभी ऐसी पृष्ठभूमि होने के बाद भी पूर्णतः बदल गए थे।
हम बात कर रहे थे भक्त कवि श्री सूरदासजी की। तो सबसे पहले हम प्रारंभ करते हैं उनकी साहित्य साधना और उनके साहित्य संसार से। यों तो सूरदास का समस्त काव्य जगत उनकी काव्य प्रतिभा से जगमगा रहा है। भ्रमर गीत जैसी रचना के तो वे पहले कवि रहे हैं, जिन्होंने उस कृतित्व से एक विशिष्ट परम्परा की शुरुवात की। भ्रमरगीत कृष्ण के विछोह में व्याकुल गोपियों की विरह वेदना को पूरी मौलिकता से प्रस्तुत करते हुये सूरदास ने इसे सर्वथा बड़ी मार्मिकता से उकेरा है। सूरदास की इस रचना में उद्भव के ज्ञानमार्ग के घमंड को तोड़ उनके निर्गुण भक्ति पर गोपियों के प्रेम की विजय और उनके सगुण भक्ति की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है। यद्यपि आज तक अनेक भ्रमर गीतों की रचना हो चुकी है, और उनमें से कई सुंदर भी बन पड़े हैं, पर सूरदास की महत्ता उनमें सबसे अधिक प्रेरणा श्रोत रही है। उनका भ्रमरगीत सबसे श्रेष्ठ है। सूरदास हिन्दी के उच्च कोटी के कवि हैं। उनकी रचना सबके लिये आदर्श के रूप में रही है। पर इसके पहले वे एक अनन्यं भक्त हैं। उनकी भक्ति भावनाओं का आधार कृष्ण हैं। कृष्ण भक्ति का प्रसार करने वालो में सूरदास का महत्वपूर्ण स्थान है। ये ही इस भक्ति के प्रस्तोता है और ये ही संवादकर्ता इसके सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनकी रचना की सौष्ठव देखकर इस बात का आश्चर्य होता ऐसा है कि इतनी मंजी हुई भाषा में ऐसी सुंदर काव्य ग्रंथ पहले पहल कैसे लिख दिया गया गया। जो भी हो पर सूर की श्रेष्ठता सर्वथा निर्विवाद है।सूरदारसजी का सबसे अधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ उनका सूरसागर है। जिसमें श्री रूप में कृष्ण की लीलाओं का विशद वर्णन है। लोग उनकी इस रचना को भागवत का भावानुवाद भी कह देते हैं।यह भी उतना ही सहीं है । सूरदास का अपना बहुत बड़ा योगदान इसकी विशिष्टता में रहा है। अपने कृतित्व में उन्होंने कृष्ण की लीलाओं को सर्वथा श्रेष्ठ दृश्यावलियों और भाषा संवाद से उन्होने सर्वत्र अपनी मौलिकता की छाप लगाई है। मूलभाव को लेकर उन्होंने ऐसा पंचा लिया है कि वह फिर उनका अपना ही हो गया और सर्वधा नवीन बना दिया गया है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि सूरदास ने अपने सूरसागर में भागवत से आधार तो ग्रहण किया पर अपनी मौलिकता के प्रभाव से उससे भी अनुठे और सुंदर रूप में उस चीज को प्रस्तुत कर दिया है।
भाषा की सरलता की दृष्टि से भी सूरदास की रचनाओं का महत्व श्रेष्ठ और विशिष्ट हैं। वैसे भी ब्रजभाषा, जो सूरदास के कृतित्व का माध्यम है वह ही अपने आप में अपनी कोमलता के लिये जग विख्यात है। फिर सूरदास ने अपनी प्रतिभा से उसका संस्कार परिस्कार करके उसे और भी अधिक सौष्ठव प्रदान किया है। उनकी सरलता और सुकुमारता के कारण भी इसका महत्व बढ़ा है।
“उद्धौ में कोकिल कुंजत कानन तथा लरिकाई।
की प्रेम कहाँ अति कैसे छूटत””!!
ऐसे पंक्तियों की जी सरलता देखते ही बनती है। इसका अर्थ यह भी है कि यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि भाषा की दृष्टि से भी सूरदास का कृतित्व भागवत की अपेक्षा उत्कृष्ट है। इस तरह हम देखते हैं कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी कहा है “सूर की बड़ी भारी विशेषता है, नवीन प्रसंगों की उद्भावना! प्रसंगोद्भावना करने वाली ऐसी प्रतिभा हम तुलसीदास में भी नहीं पाते।”
“सुनियो एक संदेशो उद्धौ तुम गोकुल को जात ।
ता पाक्कै तुम कहियौ उनसों एक हमारी बात,
नाहिन कान्ह तिहारे प्रीतम वा जसुदा के जाय, समुझौ बुझौ अपने मन में जो कहा भल की कई बात तुम मत्त ग्वालिनी सबै आप सब की न्हीं।।”
सूरदास का जनम 22 अप्रैल की तिथि को माना जाता है। उनका जन्म दिल्ली के समीप स्थित सीही नामक गांव में सन् 1478 में हुआ था। उनका निधन सन् 1383 के लगभग पारसौला में हुआः सूरदास नेत्रहीन थे। उन्होंने “खंजम नैन रुप रसभाते” पद का गायन करते हुये प्राण त्यागे। उनकी रचनाओं में “सूरसागर”, “सूर सारावली”, “साहित्य लहरी”, “मलदमयंती”, “ब्याह लो”, प्रमुख हैं। सूरदास श्रीकृष्ण की लीला और भक्ति के पदों को आजीवन गाते रहे। ये वात्सल्य रस के सम्राट भी कहे जाते हैं। मार्मिक तथा गंभीर भाव और विचार व्यक्त करने में सूर की भाषा पूर्णरुय से समर्थ है। उनको भाषा में प्रसाद तथा माधुर्य गुण की प्रधानता है। सूरदास की भक्ति से सराबोर उनके जीवन की एक सत्य घटना ने सूरदास की महत्ता में और भी बढोत्तरी कर दी। वह घटना इस प्रकार है। सूरदास एक बार प्रवचन दे रहे थे । उस समय उनकी ख्याति सुनकर बादशाह शाहजहां के दो पुत्र दाराशिकोह और औरंगजेब भी सत्संग में बैठे प्रचचन सुन रहे थे। प्रवचन के दौरान पुनर्जन्म पर व्याख्यान चलने पर कट्टर मुस्लिम अनुयायी औरंगजेब को वह बात सहन नहीं हुई। वह अपने भाई से बोला शरीयत में तो पूर्वजन्म का नामोनिशान नहीं है। यह प्रवचन बकवास और बेबुनियाद है। बड़ा भाई दाराशिकोह औरंगजेब के धृष्ट व्यवहार को देखकर उसे समझाने की कोशिश करने लगा। पर वह नहीं माना आखिर दोनों का विवाद उनके पिता शाहजहां तक पहुंचा। शाहजहां भी उसे नहीं समझा सके। आखिरकार औरंगजेब के हठ के कारण सूरदास को सम्मानपूर्वक बुलवाया गया।,पुनर्जन्म को सिद्ध करने के लिए। शाहजहां भी बहुत उत्सुक था। अतः सूरदास को बादशाह ने विनय पूर्वक बालकों के झगड़े को निपटाने की बात रखी। तब सूरदास ने बादशाह से कहा कि ठीक हैं। आपके महल की सभी स्त्रिों को कहिये की वे एक एक करक मेरे सामने कुछ बोलकर जायें। शाहजारों ने सब को बुलाकर कतार में खड़ा, कर दिया और हुक्म दिया कि वे एक एक करके आएं और संत बाबा से सलाम कहकर इनमें सामने से जायें। सबने आज्ञा मानी और सबसे अंत में जहांआरा आई तथा उसने ज्यो ही “संतबाबा सलाम” कहा तो अंधे संत ने कहा “ललिता तो हे पूक्त शाहजहां” तो. जहांआरा के मुख से निकला “उद्धव तुम हो, कृष्ण कहां?” और वह मूर्हिछत हो गयी। फिर दोनों ने एक दूसरे का पुर्नजन्म कह सुनाया। संत ने शाहजहां को बताया कि “पूर्वजन्म में जहांआरा कृष्ण सखी ललिताः थी और मैं कृष्ण सखा उद्धवः। सूरदास ने शाहजहां को यह भी बताया कि इस जन्म में भी ये कन्या धार्मिक होगी, तुम्हारी बहुत इज्जत करेगी और जब मृत्यु आवेगी तो इसके हृदय धर्मप्रय होगा तथा इसी जन्म में मोछ पा जावेगी।” सूरदास के इस प्रामाणिक वचन पर शाहजहां सहित सभी को मानना पड़ा कि पुनर्जन्म एवं पूर्वजन्म आश्चर्यजनक. लगते हुये भी पूर्णतया सत्य है।
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”