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21 फरवरी सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के जन्मदिवस पर विशेष –

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला: ऐसे कवि जो समय के साथ बहने की अपेक्षा समय को अपने पीछे बहने पर विवश किया

सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”बसंत पंचमी संकेत है बसंत के पर्दापण का, मां सरस्वती की पूजा अर्चना का, और उस महान कवि सिरमौर के जन्म स्मरण का, जिसे अपने अद्भूत व्यक्तित्व के कारण “निराला” उपनाम को धारण किया। इनका पूरा नाम सूर्यकांत त्रिपाठी निराला था। इनका जन्म 1896 को बसंत पंचमी के ही दिन पश्चिम बंगाल के महिषादल में हुआ था।

निराला, छायावादी कवि के रूप में विख्यात हैं, किन्तु गद्य क्षेत्र में भी निराला की उतनी ही पकड़ थी ,इसीलिये यहां भी इनकी उतनी ही प्रसिद्धि हैं। इन्होंने गद्य की प्रायः सभी प्रचलित विधाओं में लिखा हैं, किन्तु अन्य छायावादी कवियों की तरह उनकी काव्य कृतियों की अधिक विवेचना हुई है। निराला का गद्य संसार वैविध्यों से परिपूर्ण था। इन्होंने अपने समकालीन सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक वातावरण के यथार्थ चित्रण पर जोर दिया है, जिसमें यदाकदा अपने व्यक्तिगत अनुभवों और अनुभूतियों का भी इन्होंने सुंदर समावेश किया है।
निराला का जीवन और व्यक्तित्व विचित्रताओं से परिपूर्ण रहा है, निराला जी के काव्य संसार को समय या काल की सीमाओं में बांधना असंभव हैं। इनकी लेखनी ने प्रगतिवाद और प्रयोगवादी साहित्य में भी अपनी उपस्थिति दृढ़ता से दर्ज कराई हैं। इन्होंने समय के साथ बहने की अपेक्षा समय को अपने पीछे बहने को विवश किया। ऐसे युगदृष्टा थे निराली जी। निरालाजी के पिता का नाम पंडित रामसहाय त्रिपाठी था। बचपन में ही मां का देहावसान हो गया। निराला ने बचपन से ही कविताएं लिखना शुरु कर दिया था। इन्हें हिन्दी, बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, फारसी और उर्दू की भाषाओं पर अधिकार प्राप्त था। निराला के काव्य में परस्पर विरोधी प्रवृत्तियां मिलती है, जो उनके संघर्ष भरे जीवन का प्रतिफलन बन गया। समाज की अव्यवस्था और विषमताओं के बीच निराला का समन्वयकारी व्यक्तित्व उभरकर सामने आया, तभी तो इनके काव्य में संघर्ष और क्रांति के स्वरों का सिंहनाद स्पष्ट सुनाई देता है। “जागो एक बार फिर” का क्रांतिकारी स्वर आज भी भारतीय युवकों को भारतीय संस्कृति व उनके अपारशक्ति की याद दिलाती है।

जागो फिर एक बार सिंह की गोद से छिनता रे शिशु कॉन रहते प्राण, रे अजान ।।

निराला की कविताओं में स्वाधीनता, शोषण के खिलाफ नवचेतना का संचार होता है। इनका विवाह 1911 ई. में डलमऊ के पंडित रामदयाल की पुत्री मनोहरा देवी के साथ हुआ। पुत्र रामकृष्ण और पुत्री छोटे ही थे, कि पत्नी का निधन हो गया ।पुत्री सरोज की असामयिक मृत्यु ने उनके दुख से विदीर्ण हृदय कराह कर ‘बोल उठा 1.” दुख ही जीवन की कथा रही क्या कहूं आज जो नहीं कहीं नहीं…. ”
2. “कन्ये मैं पिता…. निरर्थक था
कुछ भी तेरे हित कर न सका”

पुत्री की मृत्यु के बाद निराला शारीरिक कष्टों और मानसिक वेदना से जूझने लगे। निराला की शारीरिक बनावट अत्यंत प्रभावशाली थी उनकी वेशभूषा भी उनके शरीर की भांति सामान्य से अलग हटकर थी। पर पत्नी और पुत्री के वियोग और आर्थिक तंगी ने उन्हें इस ओर से उदासीन बना दिया। इनका स्वभाग मस्त था। जो कुछ मिला, खा लिया। जो पहनने को मिला, उसी को पहन लिया। कभी भी फल की चिंता नहीं की।
समन्वय के सम्पादन काल में निराला को स्वामी विवेकानंद के संपूर्ण साहित्य के अध्ययन का सुअवसर प्राप्त हुआ। इसीलिये उनकी कृतियों में विवेकानंद के दर्शनों के प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। बाद में कलकत्ता से प्रकाशित हास्यव्यंग प्रधान साप्ताहिक “मतवाला” में संपादकीय कार्य भी किया। इसी पत्र के माध्यम से ही इन्हें “निराला” उपनाम से ख्याति मिली थी। आचार्य शिवपूजन सहाय के बाद मतवाला और उसके कर्ताधर्ता मतवाला मंडल में पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का विशेष आदर सहित उल्लेख किया गया है। वह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि निराला जी कसौटी स्तंभ में गरगज सिंह वर्मा, साहित्य शार्दूल के नाम से स्तंभ लेखन करते थे। निराला जी अपनी कसौटी पर कस, खरे खोटे की पहचान बताते थे। निराला के की भावमयी कविताओं ने हमें विशेष रूप से तृप्त किया है। हिन्दी संसार को आपने सालभर तक नवीन संदेश दिया। मतवाला ने जो अपूर्ण युगान्तर उपस्थित किया, उसमें बंधुवर निराला का पूर्ण हाथ रहा। उनकी ही विशेषताओं के कारण मतवाला ने सर्वसाधारण के समक्ष युग परिवर्तन का दृश्य उपस्थित किया मतवाला के द्वितीय वर्ष के प्रथम अंक में इनकी यह कविता बसंत के नव संदेश की सूचना देती है-

कितने ही विघ्नों का जाल, जटिल अगम, विस्तृत पथ पर विकराल, कंटक कर्दम भय श्रम निर्मम कितने शूल, हिंस्त्र निशाचर भूषण कंदर पशु संकुल पथ धनगत अगम अकूल, पारपार करके आये, हे नूतन सार्थक जीवन ले ओय श्रम कण में बंधु सकल श्रम, सिर पर कितना गर से ब्रज बादल, उपलवृष्टि फिर शीत घोर फिर ग्रीष्म प्रबल, साधक मन के निश्चल, पथ के संचल, प्रतिज्ञा के अचल अटल पथ पूरा करके आये, स्वागत स्वागत है प्रियदर्शन, आये नवजीवन भर लाये ।।

एक बार अपने भाषण में गांधी जी ने कह दिया कि हिन्दी में कोई बड़ा लेखक नहीं है, तो यह सुनकर उन्होंने गांधी जी को खूब खरी खोटी सहित सत्य का भान कराया था। महाप्राण निराला का यह अहंकार व्यक्तिगत न होकर अपन देश की साहित्य और संस्कृति से संबंद्ध था। वे इनकी उपेक्षा या अनादर को कैसे सहन कर सकते थे। हिन्दी भाषा के प्रति इनका इतना प्रेम था कि एक बार किसी पत्रकार ने इन्होंने कह दिया कि मेरी इच्छा है कि मेरी मृत्यु के बाद अस्थियां सारे देश में बिखरा दी जायें ।निराला हिन्दी साहित्यकार के साक्षात बसंत थे। इन्होंने साहित्य और हिन्दी सेवा लिये अपना सारा जीवन अर्पित कर दिया था।

“अभी न होगा मेरा अंत
अभी अभी ही तो आया है मेरे जीवन में मृदुल बसंत ।।

सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”

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