छत्तीसगढ़

23 जून डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पुण्यतिथि पर विशेष- राष्ट्रीय अखंडता के लिए जिसने जीवन भर काम किया

सुरेश सिंह बैस शाश्वत/डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, देश के उन महानतम राजनीतिज्ञों में से एक थे ,जिन्होने राष्ट्र के बहुत ही कठिन दौर में हमारे देश के लिये बहुत ही महत्पवूर्ण योगदान किया। डा. मुखर्जी के जीवन में महत्त्वपूर्ण मोड़ 8 अप्रैल 1950 को उस समय आया जब उन्होंने पाकिस्तान के प्रति नीति के मामले मे मंत्रीगरिषद से त्यागपत्र दे दिया। वह स्वतंत्र भारत के पहले ऐसे मंत्री थे, जिन्होंने नीति के सवाल पर पद से त्याग पत्र दे दिया। इस प्रकार उन्होने संसदीय लोकतंत्र की सर्वोत्तम परम्पराओं के अनुसार कार्य और दूसरों के सामने एक अनुसरणीय उदाहरण पेश किया। इसके बाद उन्होने सत्तारुढ कांग्रेस पार्टी के विकल्प के रुप में 21 अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ नामक नयी राजनैतिक पार्टी का गठन किया।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का सार्वजनिक जीवन सन् 1934 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में आरंभ हुआ था। वे विश्वविद्यालय के सबसे कम आयु के कुलपति थे। उस समय पूरा बंगाल, उड़ीसा और आसपास का पूरा क्षेत्र उस समय विश्वविद्यालय के अंतर्गत आता था। सन् 1942 में लार्ड लिनलिथगो ने भारत छोड़ो आंदोलन को देखते हुये आतंक फैला रखा था। कांग्रेस के सभी प्रमुख नेता चूंकि जेलों में बंद कर दिये गये था। अतः उन कठिन दिनों में राष्ट्रवादी भारत का प्रवक्ता होने का भार डा. मुखर्जी को संभालना पड़ा। 1943 के प्राकृतिक आपदा के दौरान बंगाल की दुःखी मानवता के प्रति सेवाओं के कारण उनको राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई, और इसके बाद उन्हे हिन्दू महासभा का नेतत्व सौपा गया। अंग्रेजी सरकार ने देश के प्रमुख पार्टियों के समक्ष ‘भारत की आजादी और विभाजन की शर्त रखी थी, जिसमें कोई भी पार्टी किसी भूभाग के लिये जोर-जबरदस्ती नहीं कर सकती थी, जो भारत के साथ नहीं मिलना चाहता । विभाजन की मूल योजना के अनुसार संपूर्ण पंजाब और बंगाल पाकिस्तान को दिये जाने थे।डा. मुखर्जी ने तब बंगाल और पंजाब के हिन्दू बहुल क्षेत्रों को बचाने में अपनी संपूर्ण शक्ति झोंक दी। 1946 में ये भारत की संविधान सभा के लिये चुने गये थे। और 15 अगस्त 1947 को गठित हुई प्रथम सरकार में उनको उद्योग तथा वाणिज्य मंत्री बनाया गया। भारत की औद्योगिक नीति की नीव उनके द्वारा ही रखी गई। स्वतंत्र भारत के प्रथम लोकसभा चुनाव में डॉ. मुखर्जी दक्षिण कलकत्ता से जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में चुने गये। इसके कुछ दिनों के अंदर ही उन्होंने जनसंघ, हिन्दू महासभा, राम राज्य परिषद, गणतंत्र परिषद और कुछ निर्दलीय लोकसभा सदस्यों को एक सर्वमान्य कार्यक्रम के आधार पर मिला दिया और नेशनल डेमोक्रेटी पार्टी का गठन किया। इस पार्टी के अस्तित्व में आने के परिणामस्वरुप जो उस समय विपक्ष कीसबसे बड़ी पार्टी थी। डॉ. मुखर्जी ने विपक्ष के प्रभावी नेता और सशक्त विकल्प के रुप में अपना स्थान बनाया। प्रशासनिक अनुभव का अथाह भंडार एवं संसदीय क्रियाकलापों पर पकड़ वाले एक महन बुद्धिवादी होने के कारण तत्कालीन सत्तापक्ष के लोग उनसे भयभीत रहते थे।
डा. मुखर्जी राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति हमेशा सजग रहते थे। परंतु जिन समस्याओं की ओर उन्होने अत्यधिक ध्यान दिया, वह जम्मू कश्मीर राज्य का शेष भारत के साथ विलय, पाकिस्तान में रह गये हिन्दूओं का, भाग्य और सीमापार से आने वाले हिन्दू शरणार्थियों की हालत पर खूब मेहनत किया। वो डॉ. मुखर्जी ही थे जिन्होंने सबसे पहले इस समस्या को मुखरता प्रदान किया । जीवन के आखिरी समय में उन्होंने इस समस्या को खत्म करने के लिये बहुत ज्यादा प्रयत्न किया। उन्होंने जम्मू-कश्मीर राज्य को शेषभारत के साथ विलय करने पर अहम व महति भूमिका निभाई। इसी समस्या और भारत की एकता संप्रभुता के दिन रात प्रयत्नों के कारण डॉ. मुखर्जी की शारीरिक अवस्था काफी बिगड़ गई। धारा 370 के सबसे बड़े विरोधी डा. मुखर्जी ही थे जो इसे समाप्त करने के लिए पुरजोर प्रयास कर रहे थे! जम्मू कश्मीर के दौरे पर भारत को अखंड रखने की प्रतिज्ञा लिए हुए हुए दोसंविधान दो झंडे और जम्मू कश्मीर राज्य के अलग कानून के के खिलाफत में अखंड भारत के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होकर अपने स्वास्थ्य के भी चिंता ना करते हुए उन्होंने अथक प्रयत्न को मूर्त रूप देना शुरू किया और इन्हीं वजहों से उन्हें हृदय आघात हुआ फल स्वरुप 23 जून 1953 को जम्मू कश्मीर में उनका देहांत हो गया हालांकि कुछ इतिहास का लोग उनके देहांत को रहस्यमयी अवस्था में हुई मृत्यु मानते हैं।

सुरेश सिंह बैस” शाश्वत”

Related Articles

Back to top button