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संत रविदास जयंती के अवसर पर विशेष- समाजोध्दारक: संत रविदास

संत रविदास जिन्हें रैदास भी कहते हैं। इनका जन्म माघी पूर्णिमा विक्रम संवत् 1471 को हुआ मानते हैं। पर कुछ विद्वानों में इस विषय पर मत भिन्नता रही है, कोई इनकी जन्मतिथि माघी पूर्णिमा रविवार संवत् 1433 मानते है तो कोई और अन्य तिथि बताते हैं। संत रविदास के पिता का नाम मानदास था। इनकी माता का नाम कण्मादेवी था, संत रविदास चर्मकार अर्थात शुद्र के यहां पैदा हुए थे,। इसके पीछे भी एक किवदंती प्रचलित है, कहा जाता है कि रविदास के पूर्व जन्म को गुरु रामान्रद (जो इस जन्म में भी गुरु थे) ने उन्हें किसी दुकानदार से भिक्षा ग्रहण कर निषिद्ध वस्तु का भक्षण कर लेने के कारण शाप दे दिया था, कि वे अगले जन्म में चर्मकार के यहां पैदा होंगे। रविदास ने तत्काल प्राण त्याग दिए, और वे चर्मकार के यहां पैदा हुए। रामानंद को अपने दिव्यज्ञान से इसकी जानकारी हो गई। वहां जाकर रामानंदजी ने देखा कि शिशु रविदास अपनी माता करमादेवी का स्तनपान नही कर रहे हैं। मां-बाप चिंतित थे कि ऐसे में शिशु की मृत्यु हो जाएगी। रामानंद जी ने तुरंत शिंशु के कान में मंत्र. फूंका, तभी शिशु रविदास ने माता का दूध पिया था।
बाल्यावस्था में ही रविदास रामभक्ति में रम गए थे। दिनभर काम-धाम छोड़कर भक्ति भजन में डूबे रहने के कारण पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया, इन्होंने एक अलग कुटी बनाकर अपना निवास बनाया। बाद में राहगीर एवं साधुसंतों के लिए ये जूते गांठा करते और निःशुल्क भी दे देते थे। बाकी बचे जूतों को बेचकर वे अपना जीवन निर्वाह करते थे, तब राम कृपा से वे धनवान हो गए। इनमें अलौकिक कृत्य करने की क्षमता भी उत्पन्न हो गई, ब्राम्हण वर्ग इनका घोर विरोधी था ,पर इनके चमत्कारिक कार्यो को देखकर वे इनके शिष्यत्व में आ गए थे। इसके पीछे भी एक चमत्कारिक घटना का विशेष उल्लेख करना आवश्यक होगा । एक बार चित्तौड़ की रानी द्वारा भोज का आयोजन किया गया, जिसमें संत रैदास को भी निमंत्रित किया गया था। वहां पर उपस्थित ब्राम्हणों ने इन्हें देखकर भोजन करने से इंकार कर दिया। बाद में ब्राम्हणों ने अपना भोजन स्वयं बनाया और जब खाने बैठे तो उन्होंने देखा हर दो ब्राम्हणों के बीच एक रैदास बैठा हुआ है। तब ब्राम्हणों की आंख खुल गई, वे सव यह चमत्कार भी देखकर हतप्रभ रह गए। जब रैदास ने अपने शरीर को चीरकर अपना स्वर्ण जनेऊ दिखाया।
रविदास के स्वरचित अनेक पद हैं। जिनमें उन्होंने गर्व से अपनी जाति का उल्लेख किया है। वे छुआछूत से व्यथित नही होते थे। और ऐसे लोगों पर क्रोध न करते हुए वे उनके इस आचरण की न तो कटु आलोचना करते थे न उनकी कोई प्रतिकूल टिप्पणी होती थी, इसे वे लोगों का अज्ञान कहकर टाल जाते थे। सिक्खों के पवित्र धार्मिक ग्रंथ श्री गुरुग्रंथ साहब में रविदास के अनेक छंद मिलते है। रैदास सम्प्रदाय उत्तर भारत के वैष्णवों की एक शाखा के रुप में आज भी हैं। दक्षिण हैदराबाद के पास एलोर में रविदास कुंड और आंध्रप्रदेश के तिरुपति जी में बालाजी पर्वत के नीचे बैकुंठलोक स्थान पर रविदास की ग‌द्दी और समाधि के अवशेष हैं। इसका अर्थ है कि उत्तर भारत से दक्षिण भारत तक रविदास की प्रसिद्धि और कीर्ति थी। चित्तौड़ राजघराने की बहु श्याम मुरली मनोहर वाले की दिवानी मीरा रैदास को अपना गुरु मानती थीं।

“रैदास संत मिले मोहिं सतगुरु दीन्ही गुरत सहदानी”
मीरा ने गोविन्द मिल्याजी गुरु मिल्या रैदास”

मीरा ने चित्तौड़ में रविदास की छतरी बनवाई है। कबीरदास रविदास के गुरु भाई थे। गुरु रामानद के, कहते हैं बारह शिष्य थे यथा – अनंतानंद, योगानंद! सेना, भावानंद, धन्ना, कबीर, सुखानंद, रैदास, सुरसुरानंद, पद्‌मावती, नरहरी और पीपा थे। कबीर के गुरुभाई होने के बाद भी संत रैदास उन्हें गुरु के समकक्ष ही मानकर आदर देते थे।

“कहै रविदास कबीर गुरु मेरा परम कर्म धोई डारों।! ”

‌‌‌‌ रविदास का जन्मक्षेत्र प्रयाग के समीप भांडूर अथवा मंडू ग्राम में हुआ ऐसा कहा जाता है। संत रविदास अदभू व्यक्तित्व के धनी थे। गुरुग्रंथ साहिब में इनके तीस पद संग्रहित हैं। रविदास जी के पदों में फारसी भाषा का भी प्रभाव है। उनके बहुश्रुत होने का प्रमाण देती है। इनके मत के अनुयायी और अन्य भक्त ज्यादातर राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात में पाए जाते हैं। वैसे सारे भारत में इनके अनुयायी हैं। रविदास का निधनतिथि चैत्र कृष्ण चतुर्दशी संवत् 1507 माना जाता है। संत रैदास अत्यंत विनीत रागद्वेष विहीन एवं उच्चकोटी के संत कवि थे। इनके निम्न पद को इतनी ज्यादा लोकप्रियता मिली की उनके लोक गीत होने का भ्रम होने लगा। जैसे-

“‘प्रभु जी तुम चंदन हम पानी””

सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”

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