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18 अप्रैल विश्व धरोहर दिवस पर विशेष- सरगुजा की धरती के कुछ पुरातात्विक अनमोल धरोहर


सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”/हिंदू सभ्यता को अध्यात्म और पुरातात्विक संपदा से लबालब माना जाता है। आज भी पूरी दुनिया इस विषय पर निर्विवाद रूप से हमारा लोहा मानती है। वैज्ञानिक संस्था “यूनिसेफ” द्वारा भी सर्वाधिक रूप से भारत की पुरातत्व विरासत को ही अनमोल धरोहर के रूप में चुनकर संरक्षित किया गया है। चरम प्रगति पथ पर अग्रसर विज्ञान जगत भी भारतीय विरासत की आश्चर्यजनक कला विज्ञान कौशल को जानकर भौचक है। निः संदेह हम पुरातात्विक संपदा से काफी अमीर, हैं जिसपर हमें गर्व तो है, पर जो हमारे पूर्वजों ने विरासत छोड़कर हमारे सामने अपनी सभ्यता एवं आदर्श को जीवित रखने एवं उसे उत्तरोत्तर आगे बढ़ाने का दायित्व साँपा है उसे हमें पूरी क्षमता एवं इमानदारी से बढ़ाना होगा, तभी तो बात है वर्ना उनकी अथाह और चिरकाल से की गई मेहनत व्यर्थ ही जाया हो सकती है।

फिलहाल इसी परिप्रक्ष्य में आइए देखें सरगुजा जिले की कुछ पुरातत्व विरासत की तस्वीरें रामगढ़ की पहाड़ी-
‌ सरगुजान्तर्गत उदयपुर से लगभग छह सात किलोमीटर दूरी पर दक्षिण पश्चिम दिशा में यह पहाड़ी स्थित है। यह वही पहाड़ी है जहां कालीदास ने कुछ दिन प्रवास किया एवं अपनी कुछ कृतित्व को संपंन किया था, उसी अवसर के अवशेष आज भी यहां सुरक्षित हैं। यहां प्रत्येक वर्ष रामनवमी के अवसर पर रामभक्तों की • भीड़ देखते ही बनती है। आषाढ़ के पहले दिन से भारी मेला भी यहां लगता है। यहां कई छोटी बड़ी पहाड़ियों, साल और सागौन के बड़े बड़े वृक्षों से घिरा हुआ पर्वत अपनी प्राचीनतम महत्ता को समेटे हुए हैं। पहाड़ी के ऊपर प्राचीन समय की अनेक मूर्तियां देखने को मिलती हैं। यहां पहुंचने के लिए सड़क है मगर उबड़ खाबड़ होने के कारण कष्टदायक यात्रा करनी पड़ती है। सर्वप्रथम इस पर्वत में जाने पर बीच में ही सीताबेंगरा की गुफाएं मिलती है। यहीं पर विश्व की सबसे प्राचीन नाट्यशाला स्थित है।
कालिदास यंहां पर कुछ दिन रहे, तथा अपनी नाट्य रचनाओं का निर्माण यहाँ किया। कालिदास गुफा के नीचे पर हथफोड़ नामक पन्द्रह सोलह मीटर लंबी गुफा है। इस गुफा में हमेशा ठंडे पानी का स्त्रोत निकलता है। यह गुफा हमेशा ठंड का एहसास दिलाती है, यहीं पर लोग पिकनिक मनाने आते हैं। इसके आगे जाने पर सीता बैंगरा नामक गुफा पड़ती है, जिसे श्री राम जी के वनवास काल में सीताजी का निवास स्थान माना जाता है। सीधे ऊपर जाने पर कुछ दूरी पर काली मां की एक भव्य मूर्ति है। यही बड़ा तुर्रा नामक स्थान है, इसे पांडव गुफा के नाम से भी जाना जाता है, तथा यह माना जाता है कि पांडव अपने वनवस काल के कुछ दिन यहां रहे, यहां की सुंदरता देखते ही बनती है। बड़े तुर्रा से ऊपर जाने पर लगभग दो सौ सीढ़ियों के दुर्गम रास्ते से होकर मुख्य द्वार पड़ता है। जहां पर देवगुरु की एक प्राचीन खंडित मूर्ति थी जो अब गायब हो गई है। यहीं पर से थोड़ी ऊपर जाने पर मुख्य मंदिर में पहुंचते हैं, जहां पर भगवान श्री राम व सीता की प्राचीन मूर्ति है, जिसके दर्शनार्थ दूर दूर से काफी संख्या में लोग पहुंचते हैं।
हर वर्ष चैत नवरात्रि के समय यहां मेला लगता है। पंचमी के दिन से लोगों की भीड़ यहां, पहुंचती है जो नवमीं के दूसरे दिन तक रहती है।
लक्ष्मणगढ़-
सरगुजा जिले में ही एक अन्य पुरातात्विक स्थल है लक्ष्मणगढ़ जहां आज भी कई स्मारक, कलाकृतियां, पुरावशेष है. जो सुदूर निर्जन जंगलों मे अज्ञान के आवरण से कुछ दिनों ही पहले प्रकाश में आया है। यहां कोई खास आबादी नहीं है! बस कुछ आदिवासी समुदाय व एक दो व्यापारी वर्ग का निवास है। लक्ष्मणगढ़ का नाम किसी राजा, महाराज के नाम से पड़ा होगा, ऐसा कहा जाता है। यहां पर बिखरे महल, गढ़ एवं मंदिरों के प्राचीन अवशेषों को देखने से पता चलता है कि यहां भानगढ़ महल को जिसने भी बनवाया होगा वह निश्चित ही बेहद सम्पन्न, शक्तिशाली रहा होगा तथा पुरातत्व की कलाकृतियों में शिवलिंग कमल लक्ष्मी के दोनों किनारों पर हाथी के चित्र अंकित है। इन सभी के अतिरिक्त इन चित्रों में कई बेलबूटे भी अंकित किए गए हैं। यहां एक नारी द्वारा शिशु को दुग्धपान कराते हुए तथा शेषनाग देवता की छत्रछाया में एक व्यक्ति को किसी बच्चे को कहीं ले जाते हुए पत्थर की मूर्तियों में दर्शाया गया है। यहां की पत्थर सुंदर सुंदर मूर्तियां हरेक व्यक्ति को अपनी ओर सहज ही आकर्षित कर लेती है। लक्ष्मणगढ़ में बिखरे भग्नगढ़ के अवशेष बड़े बड़े पत्थर स्मारक पुरात्तव की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है यहां की अतुलनीय कला सौंदर्य का सीधा संबंध किसी वंश के राजा, महाराजाओं से रहा होगा, कहना असंभव ही है, फिर भी दूर दूर के अंचलों में स्थित ये स्थल एक लंबे समय के इतिहास के सूत्रों को सुरक्षित रखे हैं। ऐसे स्थलों का विकास एवं पुरावशेषों की सुरक्षा आतिआवश्यक है।
डीपाडीह –
सरगुजा जिले की कुसमी तहसील में समुद्री सतह से लगभग 2700 फुट की ऊंचाई पर स्थित आदिवासी ग्राम डीपाडीह है। यह स्थान चारों ओर से पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा एवं साल सागौन वृक्षों से वनाच्छादित है। यहीं कन्हर और गुलफला नदियों की प्रवाहित पावनधारा से यह क्षेत्र पल्लवित है। यहां कुछ वर्ष पूर्व उत्खनन के दौरान अनेक ऐतिहासिक एवं विस्मयकारी पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहां पर भारत की विशाल पुरातात्विक कलाकृतियों का भंडार बिखरा है। मंदिर संरचनाओं की अनेक श्रेष्ठतम कृतियां लोगों को चमत्कृत कर रही है।
डीपाडीह का मतलब ऐसे पर्वत से है जहां हमेशा दीपक जलता रहता है। पर्वत शिखर पर स्थित अनेक मंदिरों के दीपक की माला प्रज्जवलित होने के कारण उसे स्तंभ के रूप में भी जाना जाता है। डीपाडीह से दो किलोमीटर की दूरी पर साल वृक्षों के घने झुंडों के मध्य मुख्य रूप से शिव मंदिरों के करीब 20 टीलें व एक बावली है। इस स्थान को यहां के लोग सामंत सरना बोलते हैं। स्थानीय किवदंती के अनुसार बिहार प्रांत के टांगीनाथ की
विशाल प्रतिमा को लोग पूजते हैं। वस्तुतः वह परशुधर शिव की प्रतिमा है! जो कालांतर में भग्न होने के कारण वास्तविक रूप में नहीं रह गया है। इस स्थान से कुछ आगे उरावटली में शिव मंदिर के भग्नावशेष पाए गए हैं। डीपाडीह के चार पांच किलोमीटर के क्षेत्रफल में तीस मंदिरों के टीले हैं, जो स्पष्टतः डीपाडीह को मंदिरों का नगर होना बताते हैं, यहां के शिव मंदिर का मंडप व शिखर भाग पूर्णतः नष्ट हो गया है। मंदिरों का निर्माण एक विशाल चबूतरे पर जिसमें मंडप, गर्भगृह वर्गाकार है। तथा बीच में स्लेटी पत्थर का विशाल शिवलिंग है, जो गोलाकार जलहरी सहित भग्नावस्था में है। इसे टीले की खुदाई एवं मिट्टी हटाने के बाद प्राप्त किया गया, यहीं नंदी, गणेश उमाशंकर एवं शिवगणों की भी प्रतिमाएं मिली है। इसी जगह पर खुदाई के दौरान अनेक छोटे छोटे शिवमंदिर भी अनावृत्त हुए हैं। यहीं गणेश, कार्तिकेय एवं ब्रम्हा की विशालकाय एवं कलात्मक मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। विष्णु की एक त्रिविक्रम • (वामन अवतार) की बीस सेंटीमीटर से ऊंची प्रतिमा प्राप्त हुई है। गुप्तकालीन एवं कलचुरी कालीन की प्रतिमाएं यहां दिखाई देती है। डीपाडीह के अवशेषों से यह प्रतीत होता है कि यह पर्वतीय भू भाग आज से लगभग 1200 वर्ष पूर्व आठ दस किलोमीटर के भूभाग में मंदिरों के समूहों से अलंकृत रहा होगा, शायद यहां कोई अतिउन्नत वास्तुविदों की दुनिया आबाद थी। और यह स्थान उनकी राजधानी या फिर प्रमुख धार्मिक स्थल रही होगा। तभी तो मंदिरों के इतने विशाल समूहों एवं मूर्तिकला के बेजोड़ निर्माण का केंद्र रहा यह स्थान।

-“सुरेश सिंह बैस. “शाश्वत”

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