सुरेश सिंह बैस “शाश्वत“अभिभावक दिवस जिसे मातृ पितृ पूजन दिवस भी कहा जाता है। इस दिन सभी धर्मों के बच्चे अपने माता-पिता की पूजा करते हैं और उन्हें तिलक, माला चढ़ाकर उनका आशीर्वाद लेते हैं। इसे कई लोग परिवार के सदस्यों के बीच बंधन को मजबूत करने और बच्चों में सम्मान, आज्ञाकारिता और विनम्रता जैसे अच्छे मूल्यों को आत्मसात करने के तरीके के रूप में देखते हैं।
लोक निर्देश निदेशालय के अनुसार छत्तीसगढ़ प्रदेश में प्रत्येक वर्ष 14 फरवरी को वैलेंटाइन डे के स्थान पर माता-पिता पूजा दिवस के रूप में मनाया जाता है। माता-पिता को स्कूलों में आमंत्रित किया जाता है । जहां उनको पुष्पा हार पहनाकर चरण स्पर्श और मिष्ठान खिलाकर सम्मानित किया जाता है ।संयुक्त राष्ट्र दुनिया भर में सभी माता-पिता को सम्मानित करने के लिए हर साल जुलाई को वैश्विक अभिभावक दिवस मनाया जाता है। भारतीय संदर्भ में पौराणिक काल में श्रवण कुमार का उदाहरण स्वर्ण अक्षरों में अंकित है,जो युगो युगो से माता पिता के प्रति संतान का दायित्व और माता पिता की महत्ता को सर्वोत्तम रूप से महिमामंडित करता है। श्रवण कुमार अपने अंधे माता पिता को अपने कंधों में रखे कांवर में बिठाकर पैदल ही तीर्थ यात्रा और माता पिता की सेवा के लिए अथक परिश्रम करते हैं। ऐसी संतान पाकर माता-पिता भी कृत कृतार्थ हो जाते हैं। अरे अगर श्रवण कुमार नहीं होते तो शायद रामायण भी रामायण नहीं होती। रामायण की कथा के मूल में श्रवण कुमार ही् तो हैं। श्रवण कुमार का रामायण की कथा से बहुत ही गहरा महत्वपूर्ण संबंध है। जब भगवान राम के पिता महाराज दशरथ ने जंगल में आखेट के समय धोखे से श्रवण कुमार पर शब्दभेदी बाण चला दिया, जिससे श्रवण कुमार की मृत्यु हो जाती है ।मृत्यु पूर्व श्रवण कुमार के माता-पिता को जब यह ज्ञात होता है कि महाराज दशरथ के हाथों उनके पुत्र की मृत्यु हो चुकी है तो वे काफी व्यथित होते हुए महाराज दशरथ को यह श्राप दे देते हैं कि तुम भी अपनी संतान के वियोग में तड़पोगे और मृत्यु को प्राप्त होगे राजन,जैसे कि आज हम अपने पुत्र की मृत्यु पश्चात वियोग में तड़प तड़प कर हम जान दे देंगे। इसी श्राप के कारण ही राजा दशरथ को अपनी प्रिय संतान श्री राम का वियोग सहना पड़ा और श्री राम भगवान को चौदह वर्ष वनवास मैं जाना पड़ा। वे अगर बनवास ना जाते तो ना तो माता सीता का हरण होता और ना लंका युद्ध होता और न ही रावण का वध होता। और यह सब ना होता तो रामायण की कधा कैसे बनती ।खैर हम वापस वर्तमान की ओर आते हैं। राष्ट्रीय अभिभावक दिवस, अपने बच्चों के पालन-पोषण और सुरक्षा में परिवार की प्राथमिक जिम्मेदारी को सम्मानित और प्रतिष्ठ करता है. इसलिए, यह दिन अपने बच्चों के लिए सभी माता-पिता की निस्वार्थ प्रतिबद्धता को स्वीकार करता है, जिसमें इस रिश्ते को पोषित करने के लिए उनके आजीवन बलिदान शामिल हैं। राष्ट्रीय अभिभावक दिवस बच्चों के पालन-पोषण में माता पिता की महत्वपूर्ण भूमिका पर जोर देता है. दुनिया भर में सभी माता-पिता को सम्मानित करने के लिए 2012 में महासभा द्वारा इस दिन को नामित किया गया था।25 जुलाई 2022 को विश्व के कई देशों में अभिभावक दिवस मनाया जा रहा है।
मातृ दिवस के पूरक उत्सव के रूप में पिता दिवस दुनियाभर के पिताओं के सम्मान में मनाया जाता रहा है। यह एक तरह से पितृत्व के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। पिता होने तथा उनकी सत्ता को एक गौरव का विषय मानकर उनके लिए भोज, एवं पारिवारिक गतिविधियां आयोजित की जाती है। इसके साथ ही कई अन्य रोचक बातें भी इससे संबंधित हैं।
इसे मातृ दिवस का पूरक इसलिए माना गया क्योंकि इससे पहले पितृ दिवस का अस्तित्व नहीं था। जिस प्रकार स्त्री श्रम के सम्मान हेतु अंतर्राष्ट्रीय स्त्री दिवस तथा मातृदिवस में मां होने के गौरव को सम्मानित करने के लिए एक दिवस आयोजित हुए उसी प्रकार इसकी भी शुरुआत हुई।समाज केवल स्त्री को ही स्त्री नहीं बनाता बल्कि एक पुरुष को भी पुरुष बनने और बने रहने को बाध्य करता है। पुरुषत्व के कारण एक पुरुष दहाड़ मारकर रो नहीं सकता, सिसक नहीं सकता, गृहस्थी में हाथ बंटा नहीं सकता, बच्चों और अपनी पत्नी के प्रति प्रेम की अभिवयक्ति खुलकर नहीं कर सकता क्योंकि इसकी इजाजत उसे समाज नहीं देता। समाज पुरुष को कठोर बने रहने, भावनाओं को काबू में करने, परिवार को, समाज को यहां तक की देश को नियंत्रण में रखने की शिक्षा देता है।इसका उदाहरण है कि भारत मे इन्दिरा गांधी के बाद भी कोई महिला प्रधानमंत्री आजतक नहीं बन पाई है, क्योंकि हमारे देश में आज भी यह रूढ़िवादी मानसिकता है कि किसी बड़े देश, वर्ग तथा बड़े काम को संभालने का हुनर केवल पुरुषों के पास है। यही हाल सेना, बड़े कार्पोरेट जगत, फिल्म, मीडिया तथा साहित्य में विद्यमान है। लेकिन सकारात्मक बात यह है कि ये रूढ़ियां अब धीरे-धीरे टूट रही हैं।
अब महिलाओं को भी इन संस्थानों में जगह मिल रही है। लेकिन यह सब इतनी आसानी से नहीं हो रहा है बल्कि इसके लिए महिलाओं ने खुद को साबित करके दिखाया है। एक लंबे संघर्ष का इतिहास रहा है। अब महिलाओं को कमजोर मानने की परंपरा को चुनौती मिल रही है। लेकिन चीजें अभी और बदलनी बाकी हैं। पुरुष को पितृसत्तात्मक बनाने में सामाजीकरण का बहुत योगदान है।
बचपन से ही जेंडर के आधार पर स्त्री पुरुष में किए गए भेदभाव, स्त्री को घर के कामकाज में प्रमुखता दिया जाना और पुरुषों को सुपीरियर मानना इसकी जड़ों में है। यहां तक की किताबों, विज्ञापनों और रोजमर्रा के व्यवहार में स्त्री की हीनता की बातें दुहराई जाती हैं। आभूषण, रंग, प्रतीकों, कपड़े तथा खिलौने भी स्त्री और पुरुष के लिए अलग अलग हैं। इस स्थिति में बड़ा हो रहा बच्चा यह मानने के लिए मजबूर हो जाता है कि स्त्री तथा पुरुष के बीच में भेदभाव है।
उदाहरण के लिए छोटी कक्षाओं की पुस्तकों में चित्र के माध्यम से दिखाया जाता है कि मां रोटी बना रही है और पिता अटैची लेकर काम पर निकल रहे हैं। खिलौने भी अलग-अलग हैं। छोटी बच्चियों को जहां गुड़िया, किचन सेट आदि दिया जाता है वहीं पुरुष बच्चों को बंदूक, गाड़ी, गेम आदि । कुछ परिवारों में लड़कियों को चौदह वर्ष के बाद बाहर खेलना , बातें करना आदि से
वंचित कर दिया जाता हैं। वही रंगों में भी लड़कियों के लिए गुलाबी रंग और बच्चों (पुरुष )के लिए नीले रंग का चुनाव किया जाता है यदि प्रतीकों के माध्यम से वस्तुओं की महानता का बंटवारा है, तो भेदभाव बनना लाजिमी है। आकाश नीला है, समुद्र नीला है यहाँ तक की पौरुष से भरे हुए देवताओं का रंग नीला है।आकाश अनंत है और समुद्र विशाल अत: रंगों के चयन में विशालता और महानता के लिए इस रंग को चुन लिया गया जबकि इनका नीला दिखना एक रासायनिक क्रिया है। अत: सभ्यता की शुरुआत में ही पुरुष प्रधानता के लिए नीले का चयन किया गया न कि गुलाबी का । पिता ने समाज के विकास के साथ ही अपने रूप में भी परिवर्तन किया है। आज से साठ साल पहले के पिता समाज से इतना डरते थे कि अपने बच्चे को प्रेम करने पर भी उन्हें कई बातें सुना दी जाती थी।विशेष रूप से जवान हो रहे पुत्र और पुत्रियों में पुत्र पर दवाब इसलिए कि आगे चलकर उनकी संपत्ति को संभालने के काबिल बन सके, अगली पीढ़ी का वारिस बनकर लोगों पर वर्चस्व स्थापित कर सके। पिता अपने पुत्र और पुत्री की शिक्षा, व्यवसाय, वस्तुएं यहां तक की उनके सपनों पर भी दखल देते थे। उस समय के पिता अपनी पत्नियों से भी अपने माता-पिता के समक्ष प्रेम, सम्मान आदि अभिव्यक्त नहीं कर सकते थे, क्योकि उनका उपहास उड़ाया जाता था। आलम यह था कि स्त्रियों के किसी कार्य में मदद करना दूर की बात थी। इससे उस स्त्री का दोहरा शोषण होता था। एक तो ससुराल के लोगों द्वारा और जाने-अनजाने खुद के पति द्वारा जो कठोर व्यवहार को अपना पौरुष समझते थे। बेटे तो कई बार पिता को अनसुना भी कर जाते हैं लेकिन इसका उल्टा प्रभाव बेटियों पर पड़ता है। पिता उन्हें इज्जत और अपने सम्मान से जोड़ देते हैं कि यदि उनकी पुत्री ने खुद की मर्जी से विवाह कर लिया, प्रेम कर लिया या कोई अलग राय स्थापित कर ली तो इससे पिता की नाक कट जाएगी। नाक सदियों से स्त्री के आचरण से ही कटता आया है पुरुष चाहे कुछ भी अवांछित और असभ्य ही क्यों न कर ले।
।। मात पिता के चरणों में, सारा ब्रह्मांड समाया है।।
जिनकी ही कृपा से तो मैंने अपना यह जीवन पाया है ।।
उन मात पिता ने ही मुझको, जन्मा है पोसा पाला है ।।
बने सुखों का वृक्ष सदा..
पर खुद ने सुख ना पाया है।।
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