सुरेश सिंह बैस “शाश्वत“/उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से भारत के चारों धाम में से एक धाम जगन्नाथ पुरी पास ही पड़ता है । हिंदू धर्म के आदि गुरु शंकराचार्य ने प्राचीन जंबूद्वीप (भारत) में चारों कोनों में चार धर्मपीठ स्थापित किए थे। जो कालांतर में हिंदुओं के प्रमुख धार्मिक स्थल एवं तीर्थ स्थान बन गए।उन्हीं में से एक जगन्नाथपुरी है। बहुत बड़ा ताज्जुब का यह विषय है कि उड़ीसा में कुछ वर्ष पूर्व नवम्बर माह में आग एवं भीषण चक्रवाती तूफान में पुरी क्या किसी भी स्थान के मंदिरों को रत्ती भर भी नुकसान नहीं पहुँचा था। जबकि बड़े बड़े विशाल वृक्ष एवं बिल्डिंगे धाराशायी हो गये। पर किसी भी मंदिर को कुछ भी नुकसान नहीं हुआ। यहाँ तक कि उनके गुंबज पर फहरा रहे झंडे का भी तूफान कुछ नहीं कर सका। सोचने की यह बात है कि जहाँ सैकड़ों मनुष्य काल कवलित हो गये, अरबों रुपयों का नुकसान हो गया। पचासों गाँव तूफान एवं बाढ़ में डूबकर बर्बाद हो गए पर इन मंदिरों को कुछ भी नुकसान नहीं हुआ। यह दैवीय चमत्कार नहीं है तो क्या हो सकता है। पुरी के सुप्रसिद्ध मंदिर श्री जगन्नाथ मंदिर की ऊंचाई 214 फीट 8 इंच है। इसे तूफान न तो डगमगा सका और न ही तेज वर्षा और समुद्र के पानी से यह जल प्लावित हो सका। धार्मिक विश्वास है कि जिस दिन समुद्र का पानी श्री जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश करेगा, उसी दिन प्रलय हो जायेगा।पुरी पहुँचने के बाद सबस अधिक आतुरता जगन्नाथ पुरी मंदिर को देखने की होती है। यह मंदिर नगर के मध्य में बना है। जो काले पत्थरों को तराश कर बनाया गया है। मंदिर में प्रमुख प्रतिमा जगन्नाथ जी की है। इसके साथ साथ बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां भी प्रतिष्ठ हैं। इन प्रतिमाओं की विशेषता यह है कि ये प्रतिमायें चंदन की लकड़ी से बनी हैं, पर इन्हें हीरे-जवाहरात और बहुमूल्य रत्नों में सजाया गया है। जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर एक अस्थि मंजूषा बताई जाती है , जिसे प्रति बारह वर्ष में बदलकर नयी मूर्ति में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है। कहा जाता है कि ये अस्थि अवशेष भगवान श्रीकृष्ण के हैं, किंतु भारतीय हिन्दू इतिहास में अस्थि संरक्षण की ऐसी कोई अन्य उदाहरण देखने को नहीं मिलती है। बौद्ध मत में जरुर अस्थि आदि विशिष्ट अंगों के संरक्षण की परंपरा मिलती है। शायद इसी कारण पाश्चात्य विद्वान इन मूर्तियों पर बौद्ध प्रभाव मानते हैं। और तीनों मूर्तियों को बौद्धों के त्रिरत्नों, बुद्ध, संघ और धर्म का प्रतीक बताते हैं।
ऐतिहासिक प्रमाणों से प्रमाणित होता है कि जहाँ आज यह विशाल मंदिर बना है, वहाँ पहले एक बौद्ध स्तूप था ऐतिहासिक दृष्टि से मंदिर का जो भी इतिहास हो, पर आज शैलिक दृष्टि से यह मंदिर अत्यंत आकर्षक और महत्वपूर्ण है।जगन्नाथ जी का मंदिर बेहद विशाल है और दो परकोटों के भीतर है। इसमें चारों ओर चार महाद्वार हैं। पूरब का सिंह द्वार सबसे सुंदर है। जिसके दोनों ओर दो सिंह मूर्तियाँ सजीव सी लगती है। सिंह मूर्तियों के सामने काले पत्थर का सुंदर गरुड़ स्तम्भ है, जिस पर कोणार्क से लाकर स्थापित किया हुआ उच्च अरुणा स्तम्भ है । इसकी प्रदक्षिणा तथा सिंहद्वार को प्रणाम करके द्वार में प्रवेश करने पर दाहिनी ओर भगवान जगन्नाथ जी के श्री विग्रह दिखाई पड़ने लगते हैं।
मंदिर के दक्षिण में अरब द्वार उत्तर में हाथी द्वार और पश्चिम में बाघ द्वार है। द्वारों का यह नामकरण उनके निकट स्थित जानवरों की मूर्तियों के नाम पर किया गया है। मुख्य मंदिर के अंदर पश्चिम की ओर एक रत्न वेदी पर सुदर्शनचक शोभायमान है। स्थापत्य कला की दृष्टि से मंदिर के चार भाग हैं पहला भाग भोग मंडप है, जहाँ भक्त लोगों का महाप्रसाद मिलता है। दूसरा भाग नृत्य मंडप है, जहाँ आरती के समय वाद्ययंत्रों की मधुर ध्वनि पर भक्त गण आत्म विभोर होकर नृत्य करते हैं। तीसरा भाग जगमोहन मंडप कहलाता है, जहाँ दर्शक बैठते हैं। इस मंडप की दीवारों पर बहुत ही आकर्षक कलाकृतियां बनी हुई हैं। चौथा भाग मुख्य मंडप है। इसी में जगन्नाथ जी विराजमान रहते हैं। ये चारों मंडप परम्पर मिले हुये हैं ताकि एक मंडप से दूसरे मंडप में प्रवेश किया जा सके। जगन्नाथ जी मंदिर के दूसरे द्वार के भीतर जाने से पूर्व पच्चीस सीढ़ी चढ़ना पड़ता है। इन सीढ़ियों को प्रकृति के पचीस विभागों का प्रतीक माना जाता है। द्वितीय प्रकार के द्वार में प्रवेश के पहले दोनों ओर भगवत प्रसाद का बाजार दिखाई पड़ता है।
आगे चलने पर अजाननाथ, गणेश, महादेव तथा पर मंगला देवी के स्थान मिलते हैं। यहाँ सत्यनारायण भगवान का श्री विग्रह भी है। तत्पश्चात वटवृक्ष के नीचे वट पत्तशाबी, बालमुकुंद के दर्शन होते हैं। आगे गणेश जी का मंदिर, है जिन्हें सिद्ध गणेश कहते हैं। जगन्नाथ जी के निज सात मंदिर द्वार के सामने मुक्ति मंडप है जिसे ब्रम्हासन कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि पूर्वकाल में ब्रम्हाजी यज्ञ के प्रधानाचार्य बनकर यहीं विराजमान होते थे। मुक्ति मंडप के पीछे मुक्त नृसिंह का मंदिर है। ये यहाँ के क्षेत्रपाल माने जाते हैं। इस मंदिर के निकट ही रोहिणी कुंड है। इसके आगे माता सरस्वती का मंदिर है। सरस्वती और लक्ष्मी जी के मंदिरों के बीच नीलमाधवजी का मंदिर है। महालक्ष्मीजी देवी के मंदिर के पास ही जगद्गुर शंकराचार्य तथा भगवान श्री लक्ष्मीनारायण के श्री विग्रह हैं। इसी मंदिर में कथा कीर्तन तथा शास्त्र चर्चा आदि होती है। महालक्ष्मी मंदिर के पास सूर्य का मंदिर है। इस मंदिर में सूर्य, चंद्र तथा देवराज इंद्र की छोटी – छोटी प्रतिमायें स्थापित हैं। कोणार्क मंदिर से जो भगवान सूर्य की प्रतिमा लाई गई थी, वह इसी मंदिर के गुप्त स्थान में रखी हैं। सूर्य मंदिर के पास जगन्नाथ जी के मामा ईइगनेश्वर मंदिर हैं। इस लिंग विग्रह के सम्मुख जो नंदी की मूर्ति है, उससे गुप्त गंगा का प्रवाह होता है।
निज मंदिर का एक द्वार बाहर की ओर है जिसे बैकुण्ठद्वार कहते हैं। बैकुण्ठद्वार के पास ही जय विजय द्वार है, जहाँ पर जय विजय की प्रतिमायें हैं। इनके दर्शन करके अनुमति लेने पर ही निज मंदिर में जाना उचित बताते हैं। इसी द्वार के पास जगन्नाथ जी का भंडारघर हैं। ये सभी मंदिर निज मंदिर के घेरे के मंदिर कहलाते हैं। प्रायः यात्री मंदिर की परिक्रमा करने के बाद निज मंदिर के जगमोहन में गरुड स्तम्भ हैं। कहा जाता है कि चैतन्य महाप्रभुजी यही से जगन्नाथजी के दर्शन किया करते थे। इसी गली से जगन्नाथ जी की परिक्रमा की जाती है। निज मंदिर में सोलह फुट चौड़ी गली है। इस वेदी पर भगवान श्री जगन्नाथ जी, माता सुभद्रा देवी तथा बलराम जी की मूर्तियाँ हैं। एक औ मुक्ष्यमूर्तियाँ हैं। पुरी. एक पुराना और संकरी गलियों का शहर होते हुये भी सैलानियों और तीर्थ यात्रियों के लिये सभी सुख सुविधा से पूर्ण है। जगन्नाथपुर का मंदिर उसकी वास्तुकला, शिल्प, भारतीय संस्कृति की भव्यता भक्तों को मुग्ध कर लेती है। नारियल और काजू की बनी वृक्षावली से हराभरा एवं धान के लहलहाते खेतों से हिलोरे लेता जगन्नाथपुरी समुद्र की उत्ताल लहरों पर बसा है। चतुर्युग के अनुसार कलियुग का पावनकारी धाम पुरी ही माना गया है। यह माना जाता है कि पहले यहाँ नीलांचल नामक पर्वत था। और नील माधव भगवान की मूर्ति थी। देववाग से यह पर्वत भूमि में प्रविष्ट हो गया औरउस मूर्ति को देवता लोग ले गये। इस
इस क्षेत्र को नीलांचल भी कहा जाता है,जगन्नाथपुरी के मंदिर के शिखर पर विराजमान चक्र को नीलछत्र कहा जाता है। उसके शिखर से जहाँ तक भूमि के दर्शन होते हैं, वहाँ तक का पूरा क्षेत्र श्री जगन्नाथपुरी कहलाता है। पुरी का प्राचीन नाम पुरुषोत्तम क्षेत्र और श्री क्षेत्र भी था। एक समय अट्ठासी हजार ऋषियों ने सूत जी से पूछा कि पृथ्वी में ऐसा कौन सा तीर्थ उत्तम है जहाँ के दर्शन मात्र से मनुष्य भवसागर से पार हो जाय। तब सूत जी ने कहा कि नीलांचल पर्वत पर परम पवित्र श्री पुरुषोत्तम क्षेत्र है। यहाँ पर श्री जगन्नाथ जी के नाम से भगवान स्वयं वास करते हैं। जगन्नाथ मंदिर के कारण ही पुरी को विश्व विख्याति प्राप्त हुई है।परम कल्याणकारी श्री. जगन्नाथ जी की यात्राओं में से रथयात्रा अन्यतम है। विविध पुराणों में इस यात्रा का उल्लेख हुआ है। इस यात्रा को “घोषयात्रा”, “गुण्डिचायात्रा”, “नवदिन यात्रा”, “महादेवी” महोत्सव आदि कहा जाता है। रथयात्रा कहने से हिंदु समाज में और भारत के बाहर भी पुरी की रथयात्रा ही समझी जाती है। हिंदू समाज में रथ का प्रचलन अनादिकाल से हुआ है। वेदों में सूर्य का रथ सप्ताश्व रथ है। नीलांचल धाम के प्रतीक श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा अति प्राचीन काल से इसी प्रकार चली आ रही है। कुछ लोगों का कहना है कि राजकुमार गौतम प्रणस्या के पहले रथासीन होकर बगीचों में भ्रमण करते थे अतः इसी स्मृति में रथयात्रा मनाई जाती है। वहीं कुछ का कहना है कि जब बुद्धदेव जीवित थे तब बुद्ध सन्यासियों के चतुर्मास्य व्रत के लिये गिरिगुहा और बिहार आदि से लौटने की यात्रा कहा जाता है। इसी पद्धति को आषाढ़ की रथयात्रा ने ग्रहण कर लिया है नीलांचल धाम के प्रतीक श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा प्राचीनकाल से ही पृथ्वी के विविध देशों में प्रसारित हुई थी। इसके अनुसरण में आज भारत के विभिन्न प्रांतों में ही नहीं विदेशों में भी रथयात्रा मनाई जाती है। देश के सभी छोटे बड़े गाँवों, शहरों में भी रथयात्रा के दिन रथ बनाकर उसमें जगन्नाथजी की तैल चित्र या पुट्ठे कागज से निर्मित कर उसमें स्थापित करके बाजे गाजे के साथ रथयात्रा का उत्सव मनाते हैं।
“गुंडिचारूणयां महायात्रां ये पश्चयन्ति मृदान्विता: ।।
सर्व पाप विनिर्मुक्तास्तते
यांति भवनं मम: ।।
यह रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को अनुष्ठित होती है,
जगन्नाथ जी की रथयात्रा जिसमें बलभद्र, सुभद्रा एवं स्वयं जगन्नाथ जी प्रतिष्ठ रहते हैं।रथ प्रमुख मंदिर से जनकपुर के लिये प्रस्थित होती है जहां नौ दिन तक जगन्नाथ जी की पूजा एवं नित्य – भोग प्रसाद जनकपुर में सम्पन्न होती है।
सुरेश सिंह बैस ” शाश्वत”