
कतियापारा के मोपका चुंगीनाका’में जहां कभी अरपा पर चलती थी नावें:अब है सन्नाटा
सुरेश सिंह बैस/बिलासपुर। शहर की पुरानी बस्ती कतियापारा में स्थित यह इलाका, जिसे वर्षों तक मोपका नाका के नाम से जाना जाता था, आज खामोशी में डूबा पड़ा है। कभी यह स्थान शहर की सबसे सक्रिय आवाजाही वाले चुंगी नाकों में से एक हुआ करता था। अरपा नदी के उस पार बसे गांवों से लोग रोज़मर्रा की आवश्यक वस्तुएँ-लकड़ी, छेना, दूध, दही, घी, अनाज और फल-सब्ज़ियां ,यहीं से शहर में लेकर प्रवेश करते थे।

अरपा नदी पार के कई गांवों से होता था व्यापार
नदी पार के गांव लिंगियाडीह मोपका,चिल्हाटी, गतौरा,खैरा, लगरा,मटियारी, पंधी, धनिया, गुड़ी,ए सीपत, बिजौर, परसाही, खमतराई ,बहतराई, यहां तक की सोंठी, कुली जैसे दूर दराज के गांवों के भी ग्रामीण व किसान अपने सामान लेकर इसी रास्ते से नदी पार करते थे और शहर में अपना व्यापार करते थे।
बैलगाड़ी, कांवर और सिर पर बोझा लेकर लाया जाता सामान
उन दिनों ट्रैक्टर जैसे आधुनिक वाहन नहीं होने के कारण केवल बैलगाड़ी, कांवर में व सिर पर बोझ लेकर व्यापारी ग्रामीण अपने सामान लाते थे। नदी पार से शहर प्रवेश के लिए केवल एक पुराना सरकंडा पुल जो दूर होने के कारण लोग इसी स्थान से नदी को पार करते हुए शहर प्रवेश करते थे। उन दिनों मोपका नाका में बहुत भीड़ भाड़ और ग्रामीणों व्यापारियों की आवाजाही दिनभर लगे रहती थी।
केवल नावें ही नदी पार करने के होते थे साधन
उन दिनों कतियापारा के मोपका चुंगी नाका मैं व्यापारियों, किसानों, और आम लोगों के नदी पार करने का एकमात्र साधन हुआ करता था और वह था नाव। नावों के द्वारा ही नदी पार के सभी गांव बस्ती के लोग शहर में प्रवेश कर पाते थे, ये नावें जो एकमात्र कतियापारा के (जनकबाई घाट) डोंगा घाट और मोपकानाका घाट पर ही चलाई जाती थीं। उन दिनों नावों का दिन भर में कई फेरा नदी इस पार से उस पार तक नाविक लगाया करते थे। ये नाव भी करीब 35 से 40 फीट लंबी और करीब पांच फीट चौड़ाई की होती थी। इन नावों में प्राय: 60 70 लोगों को लेकर ही नाव पार कराया जाता था। नाव चलाने के लिए म्युनिसिपल द्वारा ठेका दिया जाता था।
अस्सी दशक के उत्तरार्ध तक चुंगी नाका का अस्तित्व रहा
यह सिलसिला करीब सन 1980 – 82 तक चला। फिर धीरे-धीरे शहर में अरपा नदी पर पुल बनने लगे। सबसे पहले तोरवा पुल फिर शनिचरी रपटा का निर्माण हुआ। आज तो शहर में नदी पार से आने के लिए अनेक पुल बन गए हैं। इन पुलों के बन जाने के बाद चुंगी और नाका सिस्टम भी समाप्त हो गया, लोगों का आना-जाना भी लगभग खत्म हो गया। और इसी समय से जब इसकी आवश्यकता खत्म हो गई तो मोपका नाका में धीरे-धीरे वीरानगी और सन्नाटा भी पसर गया है।
नदी पार से व्यापार आवागमन का प्रमुख केंद्र मोपका नाका
मोपकानाका में पुराने समय में खासकर सुखे दिनों में बैलगाड़ियों और बोझ ढोने वाले मजदूरों के सहारे व्यापार चलता था, वहीं बारिश और बाढ़ के मौसम में नावें इस नाका की जान हुआ करती थीं। दूर-दराज़ के गांवों से व्यापारी और किसान नदी पार कर यहीं से शहर में कदम रखते थे। सभी गतिविधियों का नियंत्रण और चुंगी वसूली की जिम्मेदारी उस समय बिलासपुर म्युनिसिपल के पास थी।
मोपकानाका में रौनक और काफी चहल पल होता था
नाका पर इतनी चहल-पहल होती थी कि सुबह से शाम तक यहां भीड़ कम नहीं होती थी।समय बीतने के साथ जैसे-जैसे शहर में पुल और पक्के मार्ग बने, चुंगी व्यवस्था समाप्त हो गई और मोपका नाका भी धीरे-धीरे अपनी पहचान खोता गया। आज यह इलाका सुनसान पड़ा है। कभी जहां व्यापार की रौनक थी, अब वहां सन्नाटा और वीरानी नज़र आती है।मोपका नाका घाट किनारे मौजूद बरगद और पीपल का एक विशाल पेड़ अब भी उन पुराने दिनों का मूक साक्षी है। इसकी छांव में आने वाले लोग अब केवल अंतिम संस्कार के लिए मुंडन संस्कार व नदी स्नान के लिए आते हैं और अन्य कोई गतिविधियां नहीं दिखाई देते हैं। एक तरफ घाट के एक तरफ बजरंगबली का पुराना सिद्ध मंदिर है वही मंदिर बजरंगबली के मंदिर के पीछे की ओर नव निर्मित भव्य शिव मंदिर भी अब बन चुका है, जो श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र है।
नदी तट,रेतीले मैदान में होती थी रौनक
उन दिनों में नदी पार से व्यापारियों, किसानों की आवाजाही घाट पर बनी रहती थी, कृषि उपज, फल-फूल, दूध दही लेकर वे इन घाटों के जरिये ही शहर आते थे। शहर में मवेशी, गायें भी भारी संख्या में पाले जाते थे। इनकी बरदी (टोली) जब जूना बिलासपुर की गलियों से होते हुए घाट होकर नदी की ओर जाती हुई गायों की टोली को देखने पर बड़ी मनमोहक लगता था। ये जीवन का राग सुनाते हुए दिन स्वर्ग का साक्षात दृश्य पैदा करती थी।प्रतिदिन इन्हीं गलियों में एक क्रम में ये गाएं जब नदी घाट होकर जूना बिलासपुर की गलियों में फिर शाम के समय में लौट कर आती थीं तो शाम के धुंधलके में सूर्य की तिरछी लालिमायुक्त किरणों से वह क्षण एक अलौकिक आनंद से भर जाता था। गोधूलि की इस बेला में सड़क पर क्रम से जाती हुई गायों का झुंड, इस दौरान बछडों का रंभाना उड़ती हुई धूल,चरवाहों के द्वारा सीधे चलने के लिए गायों को आवाजें देना, फिर गायों के गले में बंधी हुई घंटियों की टनटनाहटों से वह दृश्य ही अलौकिक हो उठता था।
वह भी क्या दिन थे
उन दिनों अरपा नदी में बारहों महीने स्वच्छ जल प्रवाहित होता रहता था। लोगों का निस्तार नहाना धोना, कपड़े धोना, पूजा पाठ करना लोगों की दिनभर की दिनचर्या मानो इन्ही घाटों और नदी के तट पर ही गुजरती थी। नदी के रेतीले जगहों में चारों ओर हरीयाली भरपूर छाई रहती थी। यहां के स्थानीय केवट नदी की रेत में कोचई, कांदा, ककड़ी, कद्दू, लौकी जैसे फसलों को भरपूर मात्रा में उगाया करते थे। नदी का रेत नहीं हुआ मानो बाग बगीचों का संसार हो और इनमें लगी हुईं हरी-भरी लताएं, पेड़ पौधे भरपूर लगे हुए बड़े मनभावन लगते थे। फिर नदी का रेत जैसे-जैसे खत्म हुआ वैसे वैसे ही ये बाडियां और हरियाली भी खत्म हो गई। अब तो नदी के हर तरफ पानी का बहाव रुकने से बदबू और गंदगी ने वातावरण दूषित कर दिया है। फिर ना जाने कहां से जलकुंभी जैसे प्रदूषित करने वाले पौधों ने नदी में डेरा जमा लिया तो नदी की रही सही स्वच्छता भी समाप्त हो गई।
मोपका नाका शहर प्रवेश का एक प्रमुख नाका था : वरिष्ठ नागरिक सुनील सिंह
सुनील सिंह ने बताया कि पहले मोपकानाका में बैलगाड़ी और कांवड़ वालों का भीड़भाड़ लगा रहता था। नाका में बहुत सारे होटल व दुकानें हुआ करती थीं जहां नदी पार के ग्रामीण व्यापारी कुछ देर रुक कर चाय नाश्ता के बाद फिर शहर में आगे बढ़ते थे। पुराने दिनों को याद करते हुए उन्होंने कहा उन दिनों यहां की रौनक बहुत हुआ करती थी। पास में ही उदई चौक में अच्छा खासा बाजार हुआ करता था। जहां हर तरह की दुकानें मौजूद थी। होटल, सब्जी दुकान, पान दुकान,बर्तन दुकान, कपड़े की दुकान, यहां तक की डॉक्टर का क्लीनिक भी हुआ करता था,अब तो उदई चौक में भी सारा कुछ खत्म हो गया है। इन्होंने बताया कि उदई चौक में ही आसाराम महाराज की होटल हुआ करती थी, जो दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी।आसाराम महाराज जी के आलू गुंडा खाने के लिए प्रत्येक व्यापारी यहां जरूर रुका करते थे। अब यहाँ पर की वीरानगी और खत्म हो चले रौनक पर अफसोस व्यक्त किया।






